sandeep kumar verma
भज गोविंदम मूढ़मते-Shankaracharya.
From “भज गोविंदम मूढ़मते – Bhaj Govindam Mudhmate (Hindi Edition)”
जब भी वे कहते हैं ‘संसार’, तो उनका अर्थ है: तुम्हारे मोह ने जो जाना; तुम्हारे मोह ने जो बनाया; तुम्हारे अज्ञान से जो उपजा; तुम्हारीमूर्च्छा से जो पैदा हुआ–वही संसार।
ये वृक्ष तो फिर भी रहेंगे; ये पहाड़-पत्थर, चांद-तारे तो फिर भी रहेंगे।
तुम जाग जाओगे, तब भी रहेंगे; ये नहीं मिट जाएंगे।
इसलिए लोग पूछते हैं कि जब कोई परम ज्ञान को उपलब्ध होता है और संसार मिट जाता है, तो फिर ये वृक्ष, पहाड़-पत्थर, चांद-तारे, सूरज–इनका क्या होता है?
ये नहीं मिट जाते। वस्तुतः पहली दफा ये अपनी शुद्धता में प्रकट होते हैं। वही शुद्धता परमात्मा है।
मेरा अनुभव: (परमात्मा के दो रूप हैं, शिव और शक्ति या Yin & Yang. शिव अरूप होकर अदृश्य, स्थिर और अनंत ऊर्जा का स्त्रोतहोकर एक ही है। और शक्ति अस्थिर और सीमीत ऊर्जा के अनंत पुंजों में होकर अनंत दृश्यमान रूपों में विधयमान है। प्रज्ञान को उपलब्ध व्यक्तिको तब वही अदृश्य, अनंत हर दृश्यमान में दिखाई देता है- क्योंकि खुद में भी वह दिखाई दे गया है। इसलिए कहा है कि माला का एकमोती अपने को जान ले तो ही उसे पता चलता है कि उसके भीतर रिक्त स्थान भी है और उसी से वह सबसे जुड़ा भी है। यह रिक्तता हीशिव है, शक्ति रूपी मोती में)
तब चांद नहीं दिखता तुम्हें, चांद में परमात्मा की रोशनी दिखती है; तब वृक्ष नहीं दिखते, वृक्षों में परमात्मा की हरियाली दिखती है; तबफूल नहीं दिखते, परमात्मा खिलता दिखता है; तब यह सारा विराट परमात्मा हो जाता है।
अभी तुम्हें परमात्मा नहीं दिखता, संसार दिखता है।
और संसार एक नहीं है–यहां जितने मन हैं, उतने ही संसार हैं; क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति का अपना संसार है।
तुम्हारी पत्नी मरेगी तो तुम रोओगे, कोई दूसरा न रोएगा। दूसरे उलटे तुम्हें समझाने आएंगे कि आत्मा तो अमर है, क्यों रो रहे हो?
दूसरे उलटे समझाने आएंगे; यह मौका न चूकेंगे वे ज्ञान बघारने का। ऐसे मौके कम ही मिलते हैं। तुमको ऐसी दीन-दशा में देख कर वेथोड़ा उपदेश जरूर देंगे। वे कहेंगे, कौन अपना है, कौन पराया है! क्यों रो रहे हो?
कल उनकी पत्नी मरेगी, तब तुमको भी मौका मिलेगा; तुम जाकर उनको उपदेश दे आना कि कौन किसका है! यह संसार तो सब मायाहै!
प्रत्येक व्यक्ति का अपना संसार है। तुम्हारे चित्त के जो मोह हैं, तुम्हारी जो मूर्च्छा है, तुम्हारा जो अज्ञान है, तुम्हारी जो आसक्ति है, राग है–वही तुम्हारा संसार है।
उस आसक्ति, राग, मोह, मूर्च्छा के माध्यम से तुमने जो देखा है, वह सब झूठ है, वह सच नहीं है।
आंख पर जैसे परदे पड़े हैं, धुएं के बादल घिरे हैं।
शंकर कहते हैं: ‘तत्वज्ञान हो जाने पर संसार कहां?’
सत्य बचता है; लेकिन सत्य में तुमने जितना जोड़ दिया था, वह खो जाता है।
‘सदा गोविन्द को भजो।’
‘धन, जन और युवावस्था का गर्व मत करो, क्योंकि काल उन्हें क्षण मात्र में हर लेता है। इस संपूर्ण मायामय प्रपंच को छोड़ कर तुमब्रह्मपद को जानो और उसमें प्रवेश करो।’
मैं एक गीत पढ़ रहा था आज सुबह ही; उसकी कुछ पंक्तियां मुझे प्रीतिकर लगीं।
जोर ही क्या था, जफाए-बागवां देखा किए
आशियां उजड़ा किया, हम नातवां देखा किए
कोई जोर नहीं, कोई सामर्थ्य नहीं, कोई शक्ति नहीं। बगीचा उजड़ता रहेगा और तुम्हें खड़े होकर सिर्फ देखना पड़ेगा, तुम कुछ कर नसकोगे। घर उजड़ता रहेगा और तुम निरीह और असहाय देखते रहोगे, कुछ कर न सकोगे।
मेरे अनुभव को मैं कोष्ठक में या अलग से para बनाकर बताता हूँ ताकि कोई एक इससे प्रेरणा ले सके कि यदि आज भी यह सत्य किसी के लिए अपने को उद्घाटित कर रहा है या प्रकट हो रहा है तो किसी को भी हो सकता है। सहज ध्यान या होंश के प्रयोग से मुझे अदभुत मदद मिली।
मेरा अनुभव:(एक एक करके सारे साथी विदा होते जाएँगे, शरीर कमजोर होता जाएगा। सम्बंधी अपने काम में तुम्हारी तरह ही व्यस्त होजाएँगे। और मौत दरवाज़े पर आकर खड़ी हो जाएगी। और कुछ करने की स्थिति ही नहीं बचेगी। लेकिन होंश को साध लिया तो मौत में भी तैर जाओगे। यह होंश को साधना ही मेरे जैसे मूढ़ के लिए लिए ‘भज गोविंदम’ कब हो गयापता तब चला जब घर आ गया। यदि बीच बीच में टटोला होता कि कहाँ तक पहुँचा, कितना बाक़ी है, अब तक तो आ जाना था? तोशायद रास्ते में ही भटक रहा होता। क्योंकि घर दूर बिलकुल नहीं है, हमारे लिए जब उचित होगा तब वह खुद वहीं प्रकट हो जाएगा, जैसाहै वैसा ही प्रकट होगा। सबके लिए वह सदा से एक जैसा ही है)
ओशो,
शंकर और आप गोविन्द का भजन करने को कहने के पहले हमें हर बार मूढ़ कह कर क्यों संबोधित करते हैं?
क्योंकि तुम हो!
कुछ अन्यथा कहना झूठ होगा।
और शंकर जब कहते हैं:
‘भज गोविन्दम्, भज गोविन्दम्, भज गोविन्दम् मूढ़मते।’
तो बड़े प्रेम से कहते हैं; उनकी करुणा के कारण कहते हैं।
वे तुम्हें गाली नहीं दे रहे हैं। क्योंकि शंकर तो गाली दे कैसे सकते हैं! शंकर से तो गाली निकल नहीं सकती; वह तो असंभव है।
वे तुम्हें चेता रहे हैं, वे तुम्हें जगा रहे हैं, वे तुम्हें धक्का दे रहे हैं।
वे कह रहे हैं–उठो! सुबह हुई बड़ी देर हो गई और तुम अभी तक सो रहे हो!
वे मूढ़ कहते हैं, क्योंकि जब तक वे कुछ कठोर शब्द न कहें, तुम्हारी नींद न टूटेगी।
और वे मूढ़ कहते हैं, क्योंकि यही सत्य है, यही यथार्थ है।
मूढ़ता का अर्थ है: मूर्च्छा।
मूढ़ता का अर्थ है: सोए-सोए जीना।
मूढ़ता का अर्थ है: विवेकहीनता।
मूढ़ता का अर्थ है: जागरण की कमी, होश का न होना।
जब तुम क्रोध में होते हो, तब तुम ज्यादा मूढ़ हो जाते हो; क्योंकि तब होश और भी खो जाता है।
लेकिन कभी-कभी तुम होश में होते हो, तब तुम उतने मूढ़ नहीं होते।
और तुम भी जानते हो कि कभी तुम कम मूढ़ होते हो, कभी ज्यादा मूढ़ होते हो।
कभी मन में मोह भर जाता है तो मूढ़ता बढ़ जाती है; कभी मन में वासना भर जाती है तो मूढ़ता बढ़ जाती है।
तुलसीदास के जीवन में कथा है कि पत्नी मायके गई थी। तो वर्षा की रात में सांप को पकड़ कर वे चढ़ गए। घर के पीछे से प्रवेश कर रहेथे चोर की भांति।
बड़ी गहरी मूढ़ता रही होगी कि सांप भी दिखाई न पड़ा, रस्सी समझ में आया। वासना बड़ी तीव्र रही होगी; कामना ने बिलकुल अंधा करदिया होगा; आंखें बिलकुल अंधेरे से भर गई होंगी। नहीं तो सांप दिखाई न पड़े! हालत तो ऐसी है कि अक्सर रस्सी में सांप दिखाई पड़जाता है–भय के कारण। मौत आदमी को डराती है। राह पर रस्सी पड़ी हो तो सांप दिख जाता है। इससे उलटी हालत हुई–सांप था औरतुलसीदास ने समझा कि रस्सी है और चढ़ गए!
पकड़ा, तब भी स्पर्श से पता न चला।
बिलकुल मूर्च्छित रहे होंगे! कामवासना ने पागल कर दिया होगा!
पत्नी ने कहा देख कर यह दशा कि जितना प्रेम मुझसे है, अगर इतना ही प्रेम परमात्मा से होता, तो तुम अब तक महापद के अधिकारी होजाते।
पीछे लौट कर सांप को देखा–खयाल आया, वासना अंधा बना देती है–जीवन में एक क्रांति घटित हो गई।
पत्नी गुरु बन गई। वासना ने निर्वासना की तरफ जगा दिया।
संन्यस्त जीवन हो गया। परमात्मा को खोजने लगे।
काम में जो शक्ति लगी थी, वह राम की तलाश करने लगी। जो ऊर्जा काम बनती थी, वही ऊर्जा राम बनने लगी।
मूढ़ता ही वही ऊर्जा है। जो आज सोई-सोई है, वही कल जागेगी; जो आज छिपी पड़ी है, वही कल प्रकट होगी। मूढ़ता ही प्रज्ञा बनेगी।
वह जो तुम्हारी नींद है, वही तुम्हारा जागरण बनेगी। इसलिए उससे नाराज मत होना; और न ही मन में निंदा से भरना; और न ही अपनीमूढ़ता को छिपाने की कोशिश करना।
बहुत लोग वही कर रहे हैं!
वे महामूढ़ हैं, जो मूढ़ता को छिपाने की कोशिश कर रहे हैं।
तो तुम छोटी-मोटी जानकारी इकट्ठी कर लेते हो; अपनी मूढ़ता को जानकारी से ढांक लेते हो।
भीतर घाव रहते हैं, ऊपर से तुम फूल लगा लेते हो।
शास्त्र से उधार लिया ज्ञान ऐसे ही फूल हैं, दूसरों से उधार ली जानकारी ऐसे ही फूल हैं, जिनमें तुम ढांक लेते हो मूढ़ता को और भूल जातेहो। मूढ़ता को भूलना नहीं है, मूढ़ता को याद रखना है।
क्योंकि याद रखो तो ही उसे मिटाया जा सकता है; भूल गए तो मिटाना असंभव है।
इसलिए शंकर पद-पद पर दोहराते हैं: भज गोविन्दम्, भज गोविन्दम्, भज गोविन्दम् मूढ़मते।
…. शंकर तुम्हें याद दिला रहे हैं बार-बार कि तुम मूढ़ हो। नाराज मत होना; क्योंकि नाराज होने से शंकर का कुछ न बिगड़ेगा, नाराज होनेसे तुम सिर्फ इतना ही सिद्ध करोगे कि शंकर बिलकुल ठीक कह रहे हैं कि तुम मूढ़ हो!
शायद तुम महामूढ़ हो, वे सिर्फ मूढ़ ही कह रहे हैं–संकोचवश।
तुम जिद्द करने मत लग जाना कि मैं मूढ़ नहीं हूं; नहीं तो वही तुम्हारी मूढ़ता का रक्षण बन जाएगा। तुम स्वीकार कर लेना। तुम्हारे स्वीकारसे ही मूढ़ता टूटेगी।
तुम न केवल स्वीकार करना, बल्कि तुम स्वयं को स्मरण दिलाते रहना उठते-बैठते कि मैं मूढ़ हूं, मूर्च्छित हूं, नासमझ हूं, पागल हूं।
तुम्हारे कृत्य बदल जाएंगे; तुम्हारा गुणधर्म बदल जाएगा; तुम्हारी चेतना एक नई दिशा में गतिमान हो जाएगी।
काश, तुम याद रख सको कि तुम नासमझ हो, तो तुम में समझदारी का सूत्रपात हो गया।
अज्ञान की पहचान ज्ञान का पहला चरण है। और अंधेरे को ठीक से समझ लेना प्रकाश जलाने की पहली शुरुआत है।
जो अंधेरे को ही अंधेरा नहीं समझता, जो अंधेपन को अंधापन नहीं समझता, वह आंख की तलाश क्यों करेगा?
तुम चिकित्सक के पास जाते हो, चिकित्सक इसकी फिक्र नहीं करता कि तुम्हें कौन सी औषधि दी जाए; पहले फिक्र करता है कि निदानकिया जाए, डायग्नोसिस ठीक हो।
निदान पहली बात है, चिकित्सा दूसरी बात है।